दिन था साधारण — जैसे बाकी हज़ारों दिन। Kamal अपनी थकी हुई ज़िंदगी से कुछ मीठा पाने की कोशिश में एक छोटी सी दुकान पर गया, जहां वो एक ठंडी कोल्ड्रिंक लेकर बैठा। सोच रहा था — "ज़िंदगी बस यूं ही चल रही है, ना कोई मकसद, ना कोई दिशा..."
तभी उसकी नज़र सामने पड़े फुटपाथ पर गई। तीन लोग — एक मर्द और दो औरतें — गंदे, फटे कपड़े, धूल से सने चेहरे… पर आँखों में कोई शिकायत नहीं। वो तीनों ईंटें ढो रहे थे, मिट्टी बिछा रहे थे… और अब बस कुछ पल के लिए छांव में बैठे थे।
Kamal उन्हें नज़रअंदाज़ करने वाला था, पर तभी देखा — वो मर्द उठकर उसी दुकान से तीन चाय के कप लाया। फिर तीनों ने उन्हें ऐसे बाँटा जैसे कोई त्यौहार मना रहे हों। गर्म चाय की भाप के साथ उनके चेहरों पर मुस्कुराहटें उठीं — बिना किसी दिखावे के, सच्ची।
फिर एक औरत ने झोले में से कुछ सिक्के निकाले, चाय वाले मर्द को देने लगी। लेकिन उस मर्द ने हँसते हुए मना कर दिया। फिर दूसरी औरत ने कोशिश की — पर वो भी असफल। अंत में, चुपचाप वही सिक्के वापस उस औरत की हथेली में रख दिए गए।
Kamal के हाथ में कोल्ड्रिंक थी — जो उसकी माँ के पैसे से आई थी। उसने खुद के लिए कुछ भी नहीं किया था, पर वो तीनों…
ग़रीब थे जेब से, लेकिन अमीर थे आत्मसम्मान से।
Kamal की आँखें उस भाप से धुंधली हो गईं — जो उसके मन में चल रहे guilt से निकल रही थी।
उसने मन ही मन कहा:
"मेरे पास सब कुछ है, फिर भी मैं खोया हूँ। उनके पास कुछ नहीं है, फिर भी वो जुड़े हुए हैं।
मैं जी रहा हूँ आराम से, पर ठहरा हुआ हूँ।
वो जी रहे हैं संघर्ष में, पर बढ़ रहे हैं।
मैंने कभी माँ के पैसों के बिना चाय नहीं पी,
और उन्होंने अपने खून-पसीने से बनी कमाई को
इज्जत से बाँटना सीखा है।"
उसी पल Kamal के अंदर कुछ टूट गया… और कुछ बन गया।
वो कोल्ड्रिंक पूरी नहीं पी सका। उसने बोतल वही छोड़ी, मुड़ा, और चल पड़ा — शायद पहली बार, अपनी ज़िंदगी के लिए कुछ करने।
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सीख क्या है?
संघर्ष होना कमजोरी नहीं, असली ताक़त है।
आत्मसम्मान सबसे बड़ी दौलत है।
जो कमाता है, वही जानता है उसकी क़ीमत।
और जब तक तुम खुद के लिए खड़े नहीं होते, तब तक हर चीज़ उधारी लगती है — जैसे कोल्ड्रिंक माँ के पैसों से।

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